पिछले कुछ दिनों से देश की राजनीति में शौचालय बनाम देवालय को ले कर तगड़ी बयानबाजी चल रही है। हर नेता अपने आप को इस तरह पेश कर रहा है की जैसे वो शौचालय को ज्यादा महत्त्व दे कर बहुत बड़ा कार्य कर रहा है। कोई कहता है की हमने तो यह पहले ही कहा था। मानो देशवासियों पर अपना अहसान जाता रहा हो ! एक बार तो ऐसा लगा की कितनी सही बात कर रहे हैं हमारे प्रिय नेतागण। कितने धर्मनिरपेक्ष विचार हैं - देवालय से पहले शौचालय। कुछ विचार करने के बाद पता चला जैसे कुटिल व्यापारी अपने बेकार उत्पाद को बाज़ार में बेचने के लिए लुभावनी स्कीम प्रस्तुत करता है ठीक उसी प्रकार हमारे तथाकथित आदर्श नेता भी अपनी और अपने दल की काली करतूतों को छुपाने के लिए लुभावनी स्कीम प्रस्तुत कर रहे हैं।
असल मैं गलती हमारी ही है की हम नेताओं को समझ नहीं पाते और कभी समझ पाते हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है। वो मान्यवर अपनी सामान्य जिन्दगी संपन्न कर अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए अकूत सम्पत्ति छोड़ कर इस दुनिया से सम्मानपूर्वक विदा ले लेते हैं।
आज सुबह टहल रहा था तो घर के समीप में एक मंदिर पर मेरी नजर पड़ी। मंदिर का २ वर्ष पहले ही जीर्णोधार हुआ है। बहुत सुंदर है यह मंदिर। मंदिर देखकर लगता है की यहाँ के लोग बहुत ही सम्पन्न हैं और बहुत धार्मिक हैं। भव्यता देख कर कह सकते हैं की मंदिर में विराजमान देवता भी बड़े कृपालु हैं। आजकल इस मंदिर को और भव्य बनाया जा रहा है। मंदिर के प्रांगन में सफ़ेद रंग के कीमती पत्थर लगाने का कार्य चल रहा है। राह से गुजरता हर कोई जैसे ही मंदिर के सामने आता या तो मंदिर के अन्दर जा कर अपने देवता के समक्ष शीश झुकाता या मेरी तरह बाहर से ही शीश झुका कर अपने गंतव्य के लिए चलने लगता।
मन बहुत हर्षित था। फिर अचानक नजर मंदिर के ठीक बगल नीले पन्नी से ढके ईमारत पर गई। समीप जा कर देखा तो पाया की यह ईमारत सरकारी प्राथमिक विद्यालय की है। ऐसा लग रहा था जैसे किसी आलीशान बंगले के पास किसी गरीब का टूटा-फूटा झोपड़ा। प्राथमिक विद्यालय की तरफ तो शायद ही कोई देखता होगा। उसकी हालत ठीक वैसे ही थी जैसे किसी रेल और सड़क किनारे रहने वाले लोग, जिनको अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।
मन बहुत खिन्न हो गया यह सब देख कर। आसपास कई छोटे बड़े निजी विद्यालय खुल गए हैं। पर गरीब और मध्यम वर्ग की पहुँच से लगभग बाहर। किसी तरह अगर दाखिला मिल भी जाता है तो तमाम उम्र फीस की रकम जुटाने में घिस जाती है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की ऐसी दयनीय हालत देख कर तो गरीब भी अपने बच्चों को वहाँ नहीं भेजना चाहेगा।
वापस आते हैं हम अपने देवताओं यानी नेताओं पर। अरे! आप तो नाराज हो गए। सच ही तो कह रहा हूँ लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नेता ही हमारे देवता हैं, जनता का सुख दुःख सब नेता के हाथ में होता है। आज के युग में तो यही माई-बाप हैं। वैसे भी वर्तमान में देवताओं का हमारे युग में अवतार न लेने के पीछे हमने बहुत तर्क सुने हैं - कलयुग के अंत में जब पाप का घड़ा भर जायेगा तब देवता अवतरित होंगें, वगेरह वगेरह। यह सुन कर मुझे बहुत ख़ुशी होती है की अभी हमारे समाज में उतना पाप नहीं है जितना देवताओं की उपस्थिति काल में होता है। अब अवतार कब लेंगे इसका इन्तजार करने से कहीं बेहतर हैं आपस में, एक दूसरे को देवता समान मानना और किसी एक को चुन कर नेता बना देना। अच्छी बात यही है की हम पाँच साल बाद देवता मने नेता बदल सकते हैं। अच्छा है न ! सवाल यह है की हम कितने सक्षम है देवता और दानव पहचानने में ?
अब आते हैं इस सवाल पर की कौन पहले शौचालय या मंदिर ? देखा! खा गए न गच्चा। दरसल यही वो पॉपुलर स्कीम हैं जिसमे हमें कुटिल व्यापारी ललचाते हैं। असल में यह चाहिए तो पर यह इतने महत्वपूर्ण विषय नहीं होने चाहिए हमारे देवताओं मने नेताओं के लिए। इनका इंतजाम तो हर कोई अपने लिए से कर सकता हैं। पर विद्यालय ? क्या हर कोई विद्यालय अपने घर में बना सकता है ? बना भी लिया तो क्या वो विद्यालय कहलायेगा ?
हमें हर स्तर पर अच्छे ,सस्ते और टिकाऊ विद्यालयों की जरुरत है , है की नहीं , बताइए ?
मेरी राय में हमारे समाज को सबसे पहले अच्छे विद्यालय चाहिए फिर शौचालय और देवालय। अच्छे विद्यालय होंगे तो भविष्य के नेता भी अच्छे होंगे। अब गारंटी मत मांगने लगिए मुझसे! गारंटी माँगनी है तो उनसे मांगो जिनको आप नेता बनाओगे। यह आपको तय करना है की आपको क्या चाहिए।
--
आपका
मनोज
असल मैं गलती हमारी ही है की हम नेताओं को समझ नहीं पाते और कभी समझ पाते हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है। वो मान्यवर अपनी सामान्य जिन्दगी संपन्न कर अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए अकूत सम्पत्ति छोड़ कर इस दुनिया से सम्मानपूर्वक विदा ले लेते हैं।
आज सुबह टहल रहा था तो घर के समीप में एक मंदिर पर मेरी नजर पड़ी। मंदिर का २ वर्ष पहले ही जीर्णोधार हुआ है। बहुत सुंदर है यह मंदिर। मंदिर देखकर लगता है की यहाँ के लोग बहुत ही सम्पन्न हैं और बहुत धार्मिक हैं। भव्यता देख कर कह सकते हैं की मंदिर में विराजमान देवता भी बड़े कृपालु हैं। आजकल इस मंदिर को और भव्य बनाया जा रहा है। मंदिर के प्रांगन में सफ़ेद रंग के कीमती पत्थर लगाने का कार्य चल रहा है। राह से गुजरता हर कोई जैसे ही मंदिर के सामने आता या तो मंदिर के अन्दर जा कर अपने देवता के समक्ष शीश झुकाता या मेरी तरह बाहर से ही शीश झुका कर अपने गंतव्य के लिए चलने लगता।
मन बहुत हर्षित था। फिर अचानक नजर मंदिर के ठीक बगल नीले पन्नी से ढके ईमारत पर गई। समीप जा कर देखा तो पाया की यह ईमारत सरकारी प्राथमिक विद्यालय की है। ऐसा लग रहा था जैसे किसी आलीशान बंगले के पास किसी गरीब का टूटा-फूटा झोपड़ा। प्राथमिक विद्यालय की तरफ तो शायद ही कोई देखता होगा। उसकी हालत ठीक वैसे ही थी जैसे किसी रेल और सड़क किनारे रहने वाले लोग, जिनको अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।
मन बहुत खिन्न हो गया यह सब देख कर। आसपास कई छोटे बड़े निजी विद्यालय खुल गए हैं। पर गरीब और मध्यम वर्ग की पहुँच से लगभग बाहर। किसी तरह अगर दाखिला मिल भी जाता है तो तमाम उम्र फीस की रकम जुटाने में घिस जाती है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की ऐसी दयनीय हालत देख कर तो गरीब भी अपने बच्चों को वहाँ नहीं भेजना चाहेगा।
वापस आते हैं हम अपने देवताओं यानी नेताओं पर। अरे! आप तो नाराज हो गए। सच ही तो कह रहा हूँ लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नेता ही हमारे देवता हैं, जनता का सुख दुःख सब नेता के हाथ में होता है। आज के युग में तो यही माई-बाप हैं। वैसे भी वर्तमान में देवताओं का हमारे युग में अवतार न लेने के पीछे हमने बहुत तर्क सुने हैं - कलयुग के अंत में जब पाप का घड़ा भर जायेगा तब देवता अवतरित होंगें, वगेरह वगेरह। यह सुन कर मुझे बहुत ख़ुशी होती है की अभी हमारे समाज में उतना पाप नहीं है जितना देवताओं की उपस्थिति काल में होता है। अब अवतार कब लेंगे इसका इन्तजार करने से कहीं बेहतर हैं आपस में, एक दूसरे को देवता समान मानना और किसी एक को चुन कर नेता बना देना। अच्छी बात यही है की हम पाँच साल बाद देवता मने नेता बदल सकते हैं। अच्छा है न ! सवाल यह है की हम कितने सक्षम है देवता और दानव पहचानने में ?
अब आते हैं इस सवाल पर की कौन पहले शौचालय या मंदिर ? देखा! खा गए न गच्चा। दरसल यही वो पॉपुलर स्कीम हैं जिसमे हमें कुटिल व्यापारी ललचाते हैं। असल में यह चाहिए तो पर यह इतने महत्वपूर्ण विषय नहीं होने चाहिए हमारे देवताओं मने नेताओं के लिए। इनका इंतजाम तो हर कोई अपने लिए से कर सकता हैं। पर विद्यालय ? क्या हर कोई विद्यालय अपने घर में बना सकता है ? बना भी लिया तो क्या वो विद्यालय कहलायेगा ?
हमें हर स्तर पर अच्छे ,सस्ते और टिकाऊ विद्यालयों की जरुरत है , है की नहीं , बताइए ?
मेरी राय में हमारे समाज को सबसे पहले अच्छे विद्यालय चाहिए फिर शौचालय और देवालय। अच्छे विद्यालय होंगे तो भविष्य के नेता भी अच्छे होंगे। अब गारंटी मत मांगने लगिए मुझसे! गारंटी माँगनी है तो उनसे मांगो जिनको आप नेता बनाओगे। यह आपको तय करना है की आपको क्या चाहिए।
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आपका
मनोज